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भूल से इक बार हमसे हक़-बयानी हो गई / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

भूल से इक बार हमसे हक़-बयानी हो गई
फिर तो बद से और बदतर ज़िन्दगानी हो गई।

बेबसी में बस गये हैं गांव से आकर जहां
गांव की इक रस्म भी मुश्किल निभानी हो गई।

साग रोटी बाग़ के झूले वो पनघट लोरियां
हर निशानी गांव की बीती कहानी हो गई।

कोई बतला दे पता खोई हुई तहज़ीब का
रीढ़ जिसकी खोज में झुककर कमानी हो गई।

बन्द आंखें थी हुई दो पल नशे में याद है
होश आया जब रफू-चक्कर जवानी हो गई।

उससे पूछो किस तरह से हैं गुज़रते रात-दिन
जिसके घर की लाडली बेटी सयानी हो गई।

टैक्स इतने बाप-दादों ने कभी देखे न थे
देखिये कमज़र्फ कितनी हुक्मरानी हो गई।

फिर असर 'विश्वास' ये चांदी के जूते का हुआ
पल में हाकिम की वो सारी आग, पानी हो गई।