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भेष का अंग / कबीर

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माला पहिरे मनमुषी, ताथैं कछू न होई ।
मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोइ ॥1॥

भावार्थ -- लोगों ने यह `मनमुखी' माला धारण कर रखी है, नहीं समझते कि इससे कोई लाभ होने का नहीं । माला मन ही की क्यों नहीं फेरते ये लोग ? `इधर' से हटाकर मन को `उधर' मोड़ दें, जिससे सारा जगत जगमगा उठे । [ आत्मा का प्रकाश फैल जाय और भर जाय सर्वत्र ।]

`कबीर' माला मन की, और संसारी भेष ।
माला पहर्‌यां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥2॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं - सच्ची माला तो अचंचल मन की ही है, बाकी तो संसारी भेष है मालाधारियों का । यदि माला पहनने से ही हरि से मिलन होता हो, तो रहट को देखो, हरि से क्या उसकी भेंट हो गई, इतनी बड़ी माला गले में डाल लेने से ?


माला पहर्‌यां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।
माथौ मूँछ मुँडाइ करि, चल्या जगत के साथ ॥3॥

भावार्थ - यदि भक्ति तेरे हाथ न लगी, तो माला पहनने से क्या होना-जाना ? केवल सिर मुँड़ा लिया और मूँछें मुँड़ा लीं - बाकी व्यवहार तो दुनियादारों के जैसा ही है तेरा ।

साईं सेती सांच चलि, औरां सूं सुध भाइ ।
भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुंडाइ ॥4॥

भावार्थ -स्वामी के प्रति तुम सदा सच्चे रहो,और दूसरों के साथ सहज-सीधे भाव से बरतो फिर चाहे तुम लम्बे बाल रखो या सिर को पूरा मुँड़ा लो । [वह मालिक भेष को नहीं देखता, वह तो सच्चों का गाहक है ।]

केसों कहा बिगाड़िया, जो मुँडै सौ बार ।
मन को काहे न मूंडिये, जामैं बिषय-बिकार ॥5॥

भावार्थ -बेचारे इन बालों ने क्या बिगाड़ा तुम्हारा,जो सैकड़ों बार मूँड़ते रहते हो अपने मन को मूँड़ो न, उसे साफ करलो न ,जिसमें विषयों के विकार-ही-विकार भरे पड़े हैं ।

स्वांग पहरि सोरहा भया, खाया पीया खूंदि ।
जिहि सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्ही मूंदि ॥6॥

भावार्थ - वाह! खूब बनाया यह साधु का स्वांग ! अन्दर तुम्हारे लोभ भरा हुआ है और खाते पीते हो ठूंस-ठूंस कर , जिस गली में से साधु गुजरता है, उसे तुमने बन्द कर रखा है ।

बैसनों भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक ॥7॥

भावार्थ -इस तरह वैष्णव बन जाने से क्या होता है, जब कि विवेक को तुमने समझा नहीं ! छापे और तिलक लगाकर तुम स्वयं विषय की आग में जलते रहे, और दूसरों को भी जलाया।

तन कों जोगी सब करै, मन कों बिरला कोइ ।
सब सिधि सहजै पाइये, जे मन जोगी होइ ॥8॥

भावार्थ - तन के योगी तो सभी बन जाते हैं, ऊपरी भेषधारी योगी । मगर मन को योग के रंग में रँगनेवाला बिरला ही कोई होता है । यह मन अगर योगी बन जाय, तो सहज ही सारी सिद्धियाँ सुलभ हो जायंगी ।

पष ले बूड़ी पृथमीं, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसार्‌यो भेष मैं, बूड़े काली धार ॥9॥

भावार्थ - किसी-न-किसी पक्ष को लेकर, वाद में पड़कर और कुल की परम्पराओं को अपनाकर यह दुनिया डूब गई है । भेष ने `अलख' को भुला दिया । तब काली धार में तो डूबना ही था ।

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ ॥10॥

भावार्थ - कितनी ही चतुराई करो, उसके सहारे हरि मिलने का नहीं, चतुराई तो सारी - बातों-ही-बातों की है । गोपीनाथ तो एक उसीका गाहक है, उसीको अपनाता है । जो निस्पृह और निराधार होता है। [दुनिया की इच्छाओं में फँसे हुए और जहाँ-तहाँ अपना आश्रय खोजनेवाले को दूसरा कौन खरीद सकता है, कौन उसे अंगीकार कर सकता है ?]