भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भैंस गई फिर से पानी मे / रविशंकर पाण्डेय

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:39, 10 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रविशंकर पाण्डेय |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> '''भैंस गई फि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भैंस गई फिर से पानी मे


दिल्ली की
बातें कहता हूं
गांवों की बोली बानी में
भैंस गई
फिर से पानी में!

हम भी हैं
कितने सैराठी,
थामे रहे
हाथ में लाठी

फिर भी
रोक न पाए उसको
क्या कर बैठे
नादानी में!

लाठी में अब
नहीं तंत है,
जनता तो
तोता रटंत हैय

मन करता है
बाल नोंच लें
खुद अपने ही
हैरानी में!

कहत कबीर
सुनो भाई साधो,
सब के सब
माटी के माधोय

बेच रहे ईमान धरम सब
महज एक
कौड़ी कानी में!