भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भैया के लानिहो बोलाय हे ननदी / अनिल कुमार झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झिमिर झिमिर झोर बाजै झंझरी हे ननदी
भैया के लानिहो बोलाय हे ननदी
अखनी अचानक ते धूप गेलै बाहर
बदरा जे ऐलै बजैने ढोल मानर
भागली भागली गेली पिपरी हे ननदी
भैया के लानिहोॅ बोलाय हे ननदी
काम पुरैने छी हम्में अजवारी
आमोॅ के डाली तेॅ झूमें पिछुआरी
सजना न जाय कहीं बिखरी हे ननदी
भैया के लानिहो बोलाय हे ननदी
तोहें हे लाड़ोॅ तेॅ प्यारी भोली भाली
तोहीं हे साखिया करै छोॅ रखवाली
चातक के भाग जैते सुधरी हे ननदी
भैया के लानिहो बोलाय हे ननदी
मोर नाचै पाँख खोली दादुर भी गगलै
पहुना के पावै लेॅ कि पपीहा जे मचलै
सुध बुध गेलै सभे बिसरी हे ननदी
भैया के लानिहो बोलाय हे ननदी।