भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोगी / प्रवीण काश्‍यप

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:28, 4 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रवीण काश्‍यप |संग्रह=विषदंती व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम थिकहुँ योगी!
सहस्र-दल कमलक मंथन पश्चात
हम पबैत छी अमृत
अमृत मात्र अछि हमर जीवनक केन्द्र!
संबंधक शून्य क्षेत्र
जे नहि अबैत अछि
मर्यादा वा अमर्यादाक परिधि मे
हम एहि दुनूक परिधि सँ छी फराक,
बीचक मानवहीन सीमारेखा पर
हमरहि योग अछि सत्य।
हम ने छी सन्यासी ने गृहस्थ;
हम छी मात्र योगी
मंथन हमर कर्म,
अमृत हमर जीवन।