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भोजन की जंग में / निलय उपाध्याय

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कुत्तों और गिद्धों के बीच छिड़ी
भोजन की जंग में
आदमी
गिद्धों के साथ था

सुबह की सुनहरी धूप में
डांगर का माँस
इतना रक्तिम, इतना ताज़ा लग रहा था
जैसे शिकार किया हो अभी-अभी
सेना कुत्तों की थी तो कम न थी पलटन गिद्धों की
थोड़ी देर तक चला सब कुछ ठीक-ठाक
फिर शुरू हो गई
गिद्धों की क्रे...क्रे... कुत्तों की भौं...भौं...

कभी गिद्ध कुत्तों का पीछा करते
कभी कुत्ते गिद्धों का

आदम ने डंडा उठाया तो
दूनी ताकत से भौंके कुत्ते,
उत्साह से भरे ... मगर यह क्या
आदमी ने कुत्तों को ही खदेड़ा और
खदेड़ता रहा घूम-घूमकर दस फीट की परिधि में
डांगर की खाल उतर चुकी थी और उसे जल्दी थी

बहुत मायूस होकर देखा कुत्तों ने
आदमी का न्याय
अब हड्डियों के लिए था
और वह गिद्धों के साथ था ।