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भोर बेला / जय गोस्वामी / जयश्री पुरवार

भोर की बेला में मछुआरा
सागर में गया
डावाँडोल नाव से जाल फेंका
पूरी शक्ति लगाकर दोनो हाथों से
जाल खींचकर उठाकर देखा
कोई बड़ी मछली नहीं –
सूर्य, तुम निकल आए आकाश में !

आलोक फैल गया हवा में
धूल ने भी सहमति दे दी
पथ को भी कोई आपत्ति नहीं
 और वृक्ष ?
जानता हूँ, वह भी राज़ी हो जाएगा ।

अगर मैं घर के अभावों में भी
एक़बार हिम्मत करके, उस,
उस एक शख़्स को लेकर
वृक्ष के नीचे,
धूल भरे पथ पर
दिनभर छुपकर सोता रहूँ !

जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित