भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोर भईल / शार्दूल कुशवंशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिनगी के का बाटे भरोसा
जिनगी जी ल एक बार!
मर मर के जिअल, सय-सय बरसवा
तबो ना अईले हरसवा!
कारन त जानते बाड, तब काहे सोचताड...
आव हो, मिटाव हो
जुलिमिया के बजर मिटाव हो
मितवा हो, भोर भईल!
हसिया उठाव हो, जुलिमिया मिटाव हो
माई के अंचरवा के लाज बचाव हो
मितवा हो, भोर भईल
रतिया के दुख बिसराव हो, जुलिमिया मिटाव हो
गांव के बहरसी ताड के बिरिछवा
ओही पर बईठले चील अऊरी गिधवा
ओहनी के डरे मारे नाही लउकस चिरईं चुरूंगवा,
मिटाव हो जुलिमिया साथी आव हो
रे माई मोरि, तूही बताई द
गिधवन के भगावे खातिर धेनुही बनाई द
जुलिमियन के राज मिटाई द
माई हो तनि दुलराई द!
सुने में आईल ह ऊ हंसी हंसीं कच्चा मासे खाईले
भगवलो पर तबो ना जाईले
मिटाव हो, हटाव हो
मोरे मितवा, भोर भईल