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मंज़िलें ओझल हुईं पर सीढ़ियाँ पकड़े रहे / महेश कटारे सुगम

मंज़िलें ओझल हुईं पर सीढ़ियाँ पकड़े रहे ।
ज़िन्दगी में चाहतों की उँगलियाँ पकड़े रहे ।

मौसमे गुल था बगीचा था वहाँ सब लोग थे,
फूल चुनकर ले गए हम डालियाँ पकड़े रहे ।

फ़िक्र जिनकी घर की दीवारों के भीतर क़ैद थी,
घर गृहस्थी माँ-पिता घरवालियाँ पकड़े रहे ।

ये समझदारों की दुनिया का बहुत उम्दा उसूल,
कामयाबी की सुनहरी तितलियाँ पकड़े रहे ।

शख़्स ऐसे भी जहाँ में देखने मिल जाएँगे,
जो हमेशा दूसरों की ग़लतियां पकड़े रहे ।

रख दिया सिंहासनों पर और उतारी आरती,
ना पढ़ा समझा न माना पोथियाँ पकड़े रहे ।

भूख ने वो सब किया जो कुछ भी कर सकती थी वो,
लोग भूखे पेट अपनी पसलियाँ पकड़े रहे ।