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मंज़िल न मिल सकी कोई रस्ता न मिल सका / अनिरुद्ध सिन्हा

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मंज़िल न मिल सकी कोई रस्ता न मिल सका
अंधे को आइने का सहारा न मिल सका

पत्थर के तेरे शहर में रुकते भी हम कहाँ
वो धूप थी कि पेड़ का साया न मिल सका

हैरान है वो घर की अदावत को देखकर
अपनों के बीच भी कोई अपना न मिल सका

अपने लबों की प्यास बुझाता मैं किस तरह
दरिया की बात छोड़िए क़तरा न मिल सका

जिसके लिए गुज़ारते अपनी तमाम उम्र
इस ज़िंदगी में एक भी ऐसा न मिल सका