भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मंदि‍र के अहाते से / नरेश चंद्रकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सामूहिक प्रयासों से बने भित्ति-चित्र जैसा था वह कोना

उसमें अंकित थी
अधूरी छूटी आशाएँ
अपूर्ण कामनाएँ
पूरे न हो पा रहे मनसूबे
टूटते हुए सपने
नाकामयाबि‍यों की फेहरिस्त
असुरक्षि‍त जीवन की शिकायतें
जीने की सामान्य इच्छाएँ

भित्ति-चित्र जैसे उस कोने में
बढते ही जा रहे थे
मन्नतों के रंगीन डोरे
और नारि‍यल

मंदि‍र के अहाते में खड़े होकर भी
मैंने समझ लिया था :

इच्छाओं का बुरा हाल है

हमारे समय में !!