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"मकड़ी / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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समय  को  अंगूठा  दिखा
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झुकाया  है
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उसे  मेरे  कदमों  में
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मेरा  कोई  और  नहीं
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समय  ही  मेरा  शत्रु  है
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प्रतिद्वंद्विता  में 
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मेरा  संवेदनशील  मित्र  भी  है,
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जब  कदम  से  कदम  मिलाकर 
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वह  मेरे  साथ  चलता  है
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मेरे  अदम्य  संघर्ष  में
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कैद  होता  समय
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समर  में  धर्मज्ञ  शत्रु  है
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और  संधि  में  सर्वज्ञ  मित्र
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उसकी  चुनौतियां
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मैं  स्वीकारती  हूँ,
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उसकी  अपनी  भाषा  में
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उसके  वृत्ताकार  ललकार  में
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जिसकी  स्वर-रेखाओं  पर
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अंकित  है
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जीवन-राग  और  मृत्यु-राग .

17:32, 22 जून 2010 के समय का अवतरण

मकड़ी
 

मैं संप्रभु हूँ
अपनी व्यवस्था का

स्वयंभू संप्रभु हूँ ,
अपराजेय, अभेद्य
व्यवस्था-जाल का जनक हूँ

जिस चक्रव्यूह ने
मुझे जीवन का सर्वस्व दिया है ,
वही मेरा अश्म है
मेरी ऊर्जा है
जिसे मैंने अपने प्राण से
प्रसवित किया है

यह गेह मेरा शरीर है
मैंने अपने देहमय कारखाने में
पकाई हैं इसके लिए ईंटें
तैयार किया है सीमेंट
फिर, बनाया है
व्यूहमय किला
जहां अपनी ही खेती-बारी है
भोजन है , पानी है

मेरे अदम्य संघर्ष ने
समय को अंगूठा दिखा
झुकाया है
उसे मेरे कदमों में
मेरा कोई और नहीं
समय ही मेरा शत्रु है
प्रतिद्वंद्विता में
मेरा संवेदनशील मित्र भी है,
जब कदम से कदम मिलाकर
वह मेरे साथ चलता है

मेरे अदम्य संघर्ष में
कैद होता समय
समर में धर्मज्ञ शत्रु है
और संधि में सर्वज्ञ मित्र

उसकी चुनौतियां
मैं स्वीकारती हूँ,
उसकी अपनी भाषा में
उसके वृत्ताकार ललकार में
जिसकी स्वर-रेखाओं पर
अंकित है
जीवन-राग और मृत्यु-राग .