भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मखमल के पैबन्द / पंकज परिमल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:04, 28 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंकज परिमल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लगने लगे टाट में झीने
मखमल के पैबन्द ।

इतने हैं पैबन्द
टाट का नाम-निशान ढका ।
मोल हज़ारों में था
लाए देकर 'एक टका'।।

टके-टके की किस्तें
अग्रिम हुण्डी लिखीं कई
हैं वसूलने वाले भी फिर
सभी चाक-चौबन्द ।।

थिगले-थिगले रेशम के
नीचे हैं टाट कहीं ।
हाट उठाकर ले आई है
सारे ठाठ यहीं ।।

माँगी हुई टूकड़ी खाकर
भरीं बजार डकार ।
हाथ नचनियों के नाचे, सज
नकली बाजूबन्द ।।