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मचल रही है कहीं अमावस, भटक रहा है कहीं उजाला / ब्रह्मदेव शर्मा

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मचल रही है कहीं अमावस, भटक रहा है कहीं उजाला।
सिखा न पाई सुबह सलीके कि शाम आई पहन दुशाला।

कि छूट जाती हैं हाथ आयी तमाम मंजिल हवा सरीखी,
यही बताता रहा है सबसे हमारे पग का हर एक छाला।

दिये बमुश्किल किये हैं रोशन बड़ी खतरनाक आँधियाँ हैं,
सुनामियाँ दे रही हैं दस्तक उगल रहा है पयोधि ज्वाला।

अलग समय की अलग कहानी, छले गये हैं कदम-कदम पर,
ठगें स्वयं को स्वयं के साये समय नहीं है भरोसे वाला।

दिखीं नहीं हैं कहीं पर रौनक फिसल रही है चमक खुशी की,
सुनाई देती गमों की सरगम गमों का है आज बोलबाला।

खड़ा हुआ है बज़ार में वह हुनर की बोली लगा रहा है,
क्षुधा मिटेगी कहाँ से उसकी मिला नहीं जब उसे निवाला।

न मंदिरों की न मस्जिदों की कभी ज़रूरत अगर हैं इंसां,
धरम हमारा सिखा रहा है तमाम जग में हमी हैं आला।