भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मजदूरों की बस्ती / रजनी अनुरागी

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:53, 17 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रजनी अनुरागी |संग्रह= बिना किसी भूमिका के }} <Poem> म…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मजदूरों की बस्ती नहीं होती
वे जहाँ रुक जाते हैं
बस जाती है वहीं उनकी बस्ती

वहीं सुलगने लगता है उनका चूल्हा
वहीं उठने लगती है सौंधी सुगंध
और वहीं पकने लगती है उनकी रोटी
वहीं खेलने लगते हैं उनके बच्चे
और वहीं पलने लगते हैं उनकी आंखों में सपने

और बस इतने से सुख से ही खुश होकर
वे उठा देते हैं ऊँचे-ऊँचे भवन और इमारतें
बसा देते हैं बड़ी-बड़ी बस्तियाँ
और निकाल देते हैं
दुर्गम पहाड़ों और बीहड़ जंगलों बीच से रास्ते

सिर्फ़ इतने से ही सुख से खुश होकर
वे बसा सकते हैं
एक बिल्कुल ही नई दुनिया।