Last modified on 30 अप्रैल 2017, at 13:11

मत दिखा रोब तू नवाबी का / शोभा कुक्कल

Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:11, 30 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शोभा कुक्कल |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> मत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मत दिखा रोब तू नवाबी का
ये शहर है इक इंक़लाबी का।

शहर भर में है आज कल चर्चा
तेरी सूरत की लाजवाबी का।

गिर पड़े राह में न जाने कब
क्या भरोसा किसी शराबी का।

रच गई है नसों में अब रिश्वत
क्या मुदावा हो इस खराबी का।

हो गया काम सब का सब चौपट
ये नतीजा है सब शताबी का।

हर किसी से तपाक से मिलना
राज है अपनी कामियाबी का।

हार जाने का मत मन तू सोग
मत मना जश्न कामियाबी का।

आओ पूछें कभी बुजुर्गों से
क्या है भेद उनकी कामियाबी का।