भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मध्यवर्गीय होना गाली नहीं है / शरद कोकास
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:45, 1 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |संग्रह=गुनगुनी धूप में...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तकिये के ग़िलाफों पर
रंगीन धागों से कढ़े
"गुडनाइट" और "स्वीटड्रीम्स"
सार्थकता की दहलीज़ पर
दम तोड़ देते हैं
चूल्हे से निकलता धुआँ
अपनी कालिख से
अभावों की व्याख्या लिखता है
दस बाई दस के कमरे में
दिमाग़ बन जाता है बैठक
दिल शयन कक्ष
और पेट रसोईघर
अभावों के रेगिस्तान में
हरे-भरे इलाकों की तरह
पाई जाने वाली सुविधाएँ
वर्ग परिवर्तन की घोषणा नहीं करती
घर के किसी कोने में छुपाते हुए
बेटे द्वारा लाये पोस्टर व बैनर
वह सुनती है
किसी दलित आन्दोलन के बारे में
बेटे से होने वाली बहस के बीच
अक्सर विचारों में फहराती है
रक्त में डूबी पति की लाश
अब उसे बुरा नहीं लगता
वह जानती है
ज़रूरतें बटोरने के दौर में
यह गाली नहीं है।