Last modified on 21 जुलाई 2011, at 04:53

मना लूँ मन को तो, सजनी! / गुलाब खंडेलवाल

Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:53, 21 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=बलि-निर्वास / गुलाब खंडे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


विन्ध्याचली—
मना लूँ मन को तो, सजनी!
जीवनधन के बिना कटे क्योंकर पावस की रजनी!
तप करने निकले मनमोहन, वन के भाग्य जगे री
सूनी सेज पड़ी, ऐसे नंदन में आग लगे री
सजनी तुझको रामदुहाई, उनसे कह दे जाकर
धूनी बनी विरहिनी जल-जल, से लें घर ही आकर
योगीश्वर कहलाते शंकर उमा-अधर-रस-भोगी
जो वियोग की पीर समझते वे हैं सच्चे योगी