भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मनुष्यता पहाड़ ही ढोती / लाला जगदलपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोर के हंस चुग गए मोती,
बैठ कर तमिस्त्रा कहीं रोती ।

मौत बेवक़्त भला क्यों आती ?
ज़िन्दगी यदि ज़हर नहीं बोती ।

अस्मिता चिंतन की हरने को,
चिंता रात भर नहीं सोती ।

आदमी व्यक्त जब नहीं होता,
चेतना, चेतना नहीं होती ।

वक़्त बदले कि व्यवस्था बदले
मनुष्यता, पहाड़ ही ढोती ।