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मनुष्य की चाहत / स्वदेश भारती

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मनुष्य की चाहत अनन्त है
उसी चाहत की डोर पकड़
वह चढ़ना चाहता है सातवें आसमान पर
बाँहों में आकाँक्षाएँ भर
और यही चाहत बनती
लोभ, मोह, क्षोभ, जय-विजय, प्रेम-अप्रेम
लाभ-हानि, सुख-दुख की जड़....

यही चाहत ही सबसे अधिक बलवती है
सत्ता की कुर्सी चीख़कर कहती है
अधिक चाहत, सर्वोपरि आकाँक्षा, हंसी, शोक
मन में मत पालो
सुखी हो इहलोक, तब परलोक
पहले फैलाओ जन-जन में आलोक
सभी हों सुखी, स्वस्थ, धन-धान्य भरा
हरीतिमा, सुषमा, फूलों, फलों से भरी हो
हमारी शाश्वत माता वसुन्धरा
नियन्त्रित करो चाहत समष्टि के लिए
मजबूत करो अपनी जड़
क़दम-दर-क़दम आगे बढ़

झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़), 3 अप्रैल 2013