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मनुष्य जल / लीलाधर मंडलोई

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हरी मखमली चादर पे उछरी
वाह! ये कसीदाकारी रंगों की
मेरी स्मृति भी बरसों बरस बाद इतनी हरी
और पांखियों की ये शहद आवाज़ें
इतना अधिक मधुर स्वर इनमें
कि जो इधर 'जय श्रीराम' के उच्चार में गायब

इस हरी दुनिया के ऐन बीच
एक ठूँठ-सी देहवाले पेड़ पर यह कौन ?
अरे ! यह तो वही, एकदम वही हाँ ! बाज !!
स्वाभिमान में उठी इतनी सुन्दर गर्दन
किसी और की भला कैसे मुमकिन
उसकी चोंच के भीतर आगफूल जीभ
आँखों में सैनिक चौकन्नापन

इतिहास के नायक और फ़िल्मी हीरो के
हाथ पर नहीं बैठा वह
न ही उसके पंजे में दबा कोई जन्तु
ठूँठ की निशब्द जगह में जो उदासी फैली
उसे भरता हुआ वह समागन*

गुम रहा अपनी ग्रीवा इत-उत

मैं कोई शिकारी नहीं
न मेरे हाथ में कोई जाल या कि बन्दूक
फिर भी कैसी थी वह आशंका आँखों में
एक अजब-सी बेचैनी
कि पंखों के फडफड़ाने की ध्वनि के साथ ही
देखा मैंने उसे आसमान चीरते हुए

मेरे पाँव एकाएक उस ठूँठ की तरफ उठे
जहाँ वह था, मुझे भी चाहिए होना
कि सूख चुका बहुत अधिक जहाँ
पक्षी-जल के अलावा चाहिए होना मनुष्य-जल कुछ

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