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मन्थरा का उल्लसित विलाप / उज्ज्वल भट्टाचार्य

पीटो, और पीटो ! 
बुढ़िया हो गई हूँ, 
एक अरसे से किसी ने पीटा नहीं ।

राजपुत्र, तुम्हें क्या पता, 
इस रनिवास में क्या-क्या होता रहता है । 
दवा बनकर दर्द ऊब से उबरने देता है । 
पीट-पीटकर तुम्हारे हाथ ही थक जाएँगे । 
अकेले कमरे में अपने घावों को सहलाते हुए 
कुछ देर के लिए 
मैं जवानी के दिनों में लौट जाऊँगी । 

हर चोट मुझे बताएगी 
वह चोट मेरी नहीं 
कैकेयी की है, 
जिसे पीटना 
तुम्हारी मर्यादा के विपरीत होता । 

हाँ-हाँ, 
पीटो, और पीटो ! 
एक अरसे के बाद 
मुझे छू रहे हैं 
राजघराने के हाथ ।