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मन-माला गुँथे हो / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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71
रिश्तों के चाकू
निशदिन प्रहार
जीना दूभर।
72
तुम हो दूर
मन की किताब को
पढ़ेगा कौन?
73
छलिया लोग
सीढ़ी बनाके चढ़े
गर्व में चूर।
74
वक़्त के हाथ
आज हम हैं हारे
कल जीतेंगे।
75
ओर न छोर
नफ़रत की डोर
अपने थामे।
76
हे मेरे मन !
आँसू नहीं बहाना
दूर है जाना।
77
प्रीत की डोर
काटें कुछ मिलके
जुड़े रहना।
78
लगी नज़र
काँटों से भर गई
हर डगर।
79
कितने मोड़?
मिठबोले पथिक
गए हैं छोड़।
80
दर्द तुम्हारा
मेरे रोम-रोम में
भ्रूण -सा पले।
81
क्रूर है काल
कभी तो बदलेगी
इसकी चाल।
82
चलती बार
होठों पर ओंकार-
नाम तुम्हारा।
83
प्रलय आए
हर साँस में रहो
अनन्त तक।
84
जीवन -ज्योति !
मन-माला गुँथे हो,
ज्यों सच्चे मोती।

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