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मन का रत्नाकर डाकू / राम लखारा ‘विपुल‘

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मन का रत्नाकर डाकू जब सच के नारद के सम्मुख था
पापों की गठरी का हमनें कोई भागीदार न पाया।

लेकर इच्छाओं का फरसा
काटे थे सब अधे पके फल।
जिद ऐसी की पूरी दुनिया
कदमों में झुक जाएगी कल।

अनगिन स्वप्न मुंड गिरते थे नजरों के सम्मुख घिर घिर कर
जब तक दुख के वन में हमने सच का पारावार न पाया।

घर के पांचों सदस्य धन के
हर हिस्से को भोगा करते।
कहते थे तू भी मत डरना
हम भी नहीं किसी से डरते।

इस बहलावे में आकर हर झूठा सच्चा काम किया था
लेकिन पांचों में से कोई दुख से मुझे उबार न पाया।

सच से साक्षात्कार हुआ तो
अपने सारे झूठे दीखे।
कल तक की मीठी तानों में
आज सुनाई पड़ती चीखें।

तृष्णाओं के वश वनवासी होकर बीहड़ - बीहड़ डोले
जब तक मन ने सच से पावन रामायाण का भार न पाया।