भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन की तलछट से उगी हरी धरती / मृदुला सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:31, 11 सितम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुला सिंह |अनुवादक= |संग्रह=पोख...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन की तलछट में
किर्च-किर्च स्मृतियो का जुटान
होता गया समय के साथ
वे सोई पडीं रहीं
बिन करवट लिए
कुछ स्मृतियाँ प्रेम की तरह कोमल थी
कुछ लोक की तरह सुंदर
और कुछ संघर्ष की
जो कभी नोटिस ही नहीं हुईं

धूपछाही समय में ये
तरंगित होती रही
मन के किसी कोने में
धीरे धीरे सयानी हुईं यह स्मृतियाँ
एक दिन सघन हो उठीं
और सुबक कर रोते रहे पहरों तक
मन के भीगे भाव
शब्दों के कांधे रख अपना सर
अभिव्यक्तियाँ फूटीं
स्याही बनीं
बिखर गईं सादे कागज पर

स्याही का रंग हरा हो उठा
जिसने भी पलटा उन पन्नो को
उसे धरती दिखी हरी भरी
जिसने भी पढ़ा
कहा, भाव यही हों
जो हरियर कर दें
इस लाल होती धरती को