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मन के आँगन में / राजीव रंजन प्रसाद

अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

तुमने मेरी गुडिया तोडी, मैनें बालू का घर तोडा
तुमने मेरा दामन छोडा, मैंने अपना दामन छोडा
तुम मुझसे क्यों रूठे जानम, मैं ही टूटा, मैनें तोडा
मुझको मुझसे ही शिकवा है, तुमसे मेरा क्या नाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

पत्ता खडके, कोयल बोले, निर्झर झरता या सावन हो
मोती टूटे, यह मन बिखरे, जैसे काँच काँच कंगन हो
विप्लव ही पर बादल बरसे, जैसे यह मेरा जीवन हो
यादों का सम्मोहन फिर फिर सोंधी मिट्टी महकाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

फर्क नहीं पडता इससे कि आँखें हैं या दिल रोता है
सागर कितना खारा देखो, ज़ार ज़ार साहिल रोता है
मैनें अपना कत्ल किया फिर देखा आखिर क्या होता है
सात आसमानों के उपर भी क्या दिलबर तडपाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

30.10.2000