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मन के पास रहो / रमानाथ अवस्थी

तन की दूरी क्या कर लेगी
मन के पास रहो तुम मेरे

देख रहा हूँ मैं धरती से
दूर बहुत है चान्द बिचारा
किन्तु कहा करता है मन की
बातें वह किरणों के द्वारा

सपना बन कुल रात काट दो
चाहे जाना चले सवेरे

चिन्ता क्या मैं करूँ तुम्हारी
ख़ुद को ही जब बना न पाया
सच पूछो तो मन बहलाने
को ही कुछ गीतों को गाया

याद नहीं मेरे नयनों के
कितने आँसू गीत बने रे
जीवन से मैं खेल खेलता
और प्राण का दाँव लगाता

मेरी ही बिगड़ी मिट्टी से
मूर्ति बनाता नई विधाता
मुझ जेसे को डर ही क्या है
मरण मुझे कितना ही घेरे