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मन जूही-सा खिला / संतोष कुमार सिंह

मन जूही-सा खिला मेरा तन महका जैसे चन्दन।
करें गीत भी मेरे मीत का, गा-गाकर अभिनन्दन।।

जब से हृदय बसाया उनको रहती खोई-खोई।
वे क्या जानें रोज़ विरह में, मैं कितनी हूँ रोई।।
अभी याद है अमराई का, पहला-पहला चुम्बन।
मन जूही-सा... ।।

दिल में बढ़ती आग विरह की, जब-जब पड़ें फुहारें।
वे क्या जाने कैसे बीतीं , ये मधुमास बहारें।।
अभी याद है पहनाए जब, इन हाथों में कंगन।
मन जूही-सा... ।।

मैं उनके जीवन की कविता, वे कविता के छन्द।
मैं इठलाती कली नवेली, वे रसिया हैं भृंग।।
अभी याद है प्रथम मिलन का, दो बाहों का बन्धन।
मन जूही-सा...।।