Last modified on 17 जनवरी 2021, at 23:54

मन जोगिया / कुमुद बंसल

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:54, 17 जनवरी 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

'मन जोगिया’ जब से पढ़ने का अवसर मिला है, मन उद्वेलित है। झनझनाहट-सी हुई, बार-बार पृष्ठों को इधर-से-उधर, उधर-से-इधर कर-करके फिर-फिर पढ़ने की तांघ- जैसे किसी अपने-से को पुनः पुनः देखने, मिलने और मिल-बैठ बतियाने की चाह।
डॉ. कुमुद की सृजन-यात्रा की साक्षी रहने का सौभाग्य मुझे गत एक दशक से मिला है। 'मन जोगिया' में अंतर्मन की भिन्न-सी अवस्थाओं से उपजीं भावपूर्ण क्षणिकाएँ हैं। 'मन जोगिया' से 'उसकी’ अनुभूति हुई, साक्षात्कार हुआ। सृजन वैचारिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। कहीं हम-सब में निहित किंकर्तव्यविमूढ़, द्वन्द्वशील अर्जुन के समक्ष सारथी बन बोध कराता है हमारी भीतरी सम्भावनाओं का और उस मार्ग का, जो आत्म-ज्ञान, धर्म और मोक्ष की ओर रूहानी तौर पर अग्रसर करता है- भीतर तरीन की तहों से सिमटे- दबे भय, डर, आशंका से मुक्त होकर श्रीकृष्ण के आह्वान- 'डरो मत', 'मा शुचः'-जैसा।
• मुझे बनाया, मुझमें रहे, रहे और मिट गए। कर्म-रूप में हूँ खड़ा, कितने युग सिमट गए।।
• एक अनंत सन्नाटा है, देह की दीवार दरकी। सनसना गया स्वर अनजाना, जब ओस पत्ते से ढरकी।। .
• यहीं-कहीं आस-पास हो, बस उघाड़ना है जरा । गीत बन उतर गए हो, बस गुनगुनाना है जरा।।
समझ नहीं आ रहा 'मन जोगिया से क्या-क्या उद्धृत करूँ- 'एक कपाट खुलता/ दिखते सौ कपाट', 'बुद्धि-तर्क ने मौन साधा' की अवस्था है। नहीं, मैं न्याय नहीं कर सकतीं। चन्द शब्दों में 'मन जोगिया के अथाह को समेटने की चाह दुःसाहस होगा। इसे पढ़ना ही ज़रूरी है इसे जीने के लि।
 साँसों की माला में सिमरन है 'मन जोगिया'-- 'उसका', जिसकी सत्ता असीम है। सब मार्ग-जप, तप, ध्यान, कहीं उसी राह के सम्बल हैं, जो विलीन होती है समन्दर-सी अथाह-गहन अनुभूति में। इस अद्भुत कृति के लिए मेरा हार्दिक आभार और सहस्रों शुभकामनाएँ
सुमेधा कटारिया