भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन फिर से तुलसी बन जाओ / छाया त्रिपाठी ओझा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन फिर से तुलसी बन जाओ
झूठा जग झूठी सब बातें
झूठी हैं ये झिलमिल रातें !
खोज रहे होकर क्यों व्याकुल
इनमें तुम मीठी सौगातें !
कर्म करो ऐसा कुछ बढ़कर
जीवन का अनुपम धन पाओ।
मन फिर से तुलसी बन जाओ।

झूठा प्रेम है झूठी माया
झूठी है ये कंचन काया !
मत भागो तुम इनके पीछे
ये सब तो हैं दुखती छाया !
नये पाठ की छटा बिखेरो
एक नया सुर ताल सुनाओ।
मन फिर से तुलसी बन जाओ।

बहुत रो चुके दुख का रोना
अश्रु नहीं अब अपने खोना !
लड़कर नित्य स्वयं से सीखो
खुशियों के बीजों को बोना !
कुछ अपने कुछ औरों के हित
एक नया इतिहास बनाओ।
मन फिर से तुलसी बन जाओ।