Last modified on 3 जनवरी 2011, at 02:03

मन बहुत है / हृदयेश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:03, 3 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हृदयेश |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> आज तपती रेत पर कुछ छंद…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आज तपती रेत पर कुछ छंद
लहरों के लिखें हम
समय के अतिरेक को
हम साथ ले अपने स्वरों में
मन बहुत है !

कस रहे गुंजलक से
ये सुबह के पल बहुत भारी
अनय को देता समर्थन
दिवस यह गेरुआधारी
चिमनियों से निकल सोनल धूप
उतरी प्यालियों में
ज़िंदगी की खोज होने
है लगी कहवाघरों में

चलो, फिर इन घाटियों को
जुगनुओं से हम सजा दें
मोरपँखों-सा सुबह को
खोंस ले अपने परों में
मन बहुत है !

विकट आई घड़ी यह
जिसमें लुभावन फंद केवल
भेदिए-सी छाँह सुख की
घरों भीतर कर रही छल
जिधर भी लरजे घटा
उस ओर ही आकाश तारे
लपलपाती चल रही रुत
आग लेकर खप्परों में

खौलती नदियाँ जहाँ भी
चलो, उसकी थाह पाएँ
और उसके वेग को हम
थाम लें अपने करों में
मन बहुत है ।