भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन में चोर लुकाइल बा / शारदानन्द प्रसाद

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:32, 30 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शारदानन्द प्रसाद |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बात-बात में घात ढेर बा, मन में चोर लुकाइल बा,
भीतर-भीतर रिसत घाव बा, ऊपर सब हरियाइल बा,
बात-बात में घात ढेर बा, मन में चोर लुकाइल बा।
दुनियाँ बिहँसत बा उछाह से, बिस के दाँत चमक जाता
जहर उतर जाता लेहू में, अमरित मन भरमाइल बा,
बात-बात में घात ढेर बा, मन में चोर लुकाइल बा।
केकरा से का कहीं कि दरपन, टूट रहल बाटे मन के
तन के पाँकी में कइसे, आसा के कमल फुलाइल बा,
बात-बात में घात ढेर बा, मन में चोर लुकाइल बा।
रात अन्हार समुन्दर हइसन कइसे पाईं पार, मगर
दूर किनारा पर स्नेह के एगो दिया बराइल बा,
बात-बात में घात ढेर बा, मन में चोर लुकाइल बा।