Last modified on 4 मार्च 2020, at 15:01

मन / राखी सिंह

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:01, 4 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राखी सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सूने, एकांत कक्ष से मन।
क्यों नहीं लगाया कोई किवाड़?
ना ही एक भी कुंडी
कमसकम
हवाओं के खरखराने से
उपजी ध्वनि का भरम तो पनपे

मेरे मन!
भय किस बात का?
भला किस प्रकार रह लेते हो
यूँ दुर्ग समान अभेद किले के भीतर?

हर उपद्रव उपरांत करते हो चौकस दुगनी
तदोपरांत भी असफल रहे हो घुसपैठियों से

अच्छा कहो तो!
बचते हो फिर भी कितने दिन?
रहते हो कितने सुरक्षित?