जाने कितनी मन्नतें मानकर
उसने एक सुबह मांगी थी,
और सूरज की चुटकी भर सिंदूरी किरण से
अपनी मांग सजाई थी।
पर समाज के अवैध खाते में
एक स्त्रियोचित कर्ज था वह,
जिसे अदा करते-करते
वह पूरी की पूरी चुक गयी
और उसकी सुबह
रात के हवाले कर दी गई।
फिर इंसानियत के मरघट में
दहेज़ ने एक और चिता सजाई,
हवस ने एक और जश्न मनाया।