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मरी झीलों के शहर में / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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एक सूखा तट रहा है
नदी का जल घट रहा है

छोड़कर
लहरें हटीं पीछे
पुराने घाट सारे
मछलियाँ कीचड़-सनी
हैं खोजतीं डूबे किनारे

शंख रेती पर पड़ा
पिछले सुरों को रट रहा है

राख के हैं ढेर
जिन पर
सीपियाँ सोयी हुई हैं
नागफनियों की नुमायश
लोग कहते - जलकुईं हैं

नदी के उस पार का जंगल
सुना है - कट रहा है

पेड़ पर रुकतीं हवाएँ
डूबकर
लौटी ज़हर में
बादलों के चित्र लटके
मरी झीलों के शहर में

और पानी आँख का भी
सुन रहे हैं - बँट रहा है