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मर्दन नाका / नरेन्द्र पुण्डरीक

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जब मैं शहर पढ़ने आया तो
मन में कहीं गहरे दबा था मर्दन नाका
मर्दन नाका के प्रति एक आकषर्ण जहाँ वह रहती थी
उनके पसींने से मुझे इत्र की ख़ुशबू आने लगी थी
जबकि इस समय वर्जनाओं का घेरा इतना सख़्त था कि
पूछने की किसी से हिम्मत नहीं होती थी कि
शहर में किस तरफ है मर्दन नाका और
कौन सी गली में रहती हैं वे,

यदि जाऊँ तो कैसे पहचानूँगा उन्हें मैं
कैसे अलग करूँगा मैं
गली की बाक़ी औरतों से उन्हें
मेरे शहर आनें के कुछ दिन पहले ही वे
गाँव आई थीं
हुस्ना और शान्ति ऐसे कुछ नाम थे उनके
उनका अश्क सब पर पड़ा था
कुछ आँखें उसे छिपा रही थी
कुछ में वे चिपक कर रह गई थी
चिपकने में मेरी आँखें भी शामिल थी
जितनी देर वे गाँव में रहीं थीं
गाँव की काली रातें गोरी हो उठी थी
बदन की रोशनी का इस कदर प्रभाव
मैनें पहली बार देखा था
जो सबके भीतर दरवाज़े खोल कर ठहर गया था,

बात खुलनें के डर से बिना किसी को बताए
एक दिन अकेले ही निकल पड़ा था
उनकी तलाश में
जिनकी देह की रोशनी
मेरे भीतर धँस कर रह गई थी
गली में तो पहुँच गया लेकिन
किसी के द्वारा देख लिए जाने का डर
इतना जबरदस्त था कि
बिना इधर-उधर गर्दन घुमाए और
आँखों से बिना तके ही
जल्दी से गली से निकल भागा था
गली से बाहर आकर
उन आँखोंं की तरफ़ देख रहा था कि
किसी को मेरी आँखों और
चेहरे की सकपकाहट से कही
पता तो नहीं चल गया कि मैं
उनकी गली से हो कर लौट रहा हूॅ,
ऐसे अवसरों में छाती से उठने वाली
धुकधुकी अभी पूरी तरह से
शान्त नहीं हो पाई थी कि
घर में पिता के पूछने पर कि कहाँ रहे अब तक
छाती की धुकधुकी फिर से शुरू हो गई थी,

यह धुकधुकी भी अजीब है
ज़रा से झटके में
इसकी ठेपी खुल जाती है
लेकिन ज़रा-सी बात में
खुलने वाली यह ठेपी कब
ठप्पा बन गई पता नही चला,

ठप्पा बनते ही एक दिन मैं
निपट उजाले में उनकी गली में घुस गया तो
पता चला कि गली की सारी ख़ूबसूरत औरतें
पुरुषों की दुनिया को ख़ूबसूरत बनानें के लिए जा चुकी हैं
ठेपी के ठप्पा बनने के बीच के समय में
बहुत दिनों तक लोगों के बीच
गूँजता रहा मर्दन नाके का नाम
औरतें इस नाम को अजीब तरह से घूरती थीं
जबकि इस नाम में वे
पानी में दूध की तरह शामिल थी,

मर्दो की हँसी में जब यह नाम
टनटनाकर बजता तो
फुसफुसाती हुई औरतें इसे
चैंलेंज की तरह लेकर सूरज डूबने का इन्तज़ार करतीं
और रात भर टटोलतीं पुरुषों की आंखों में उगा
सुअर का यह बाल
जिससे बनता है मर्दन नाका, मूलगंज
दालमण्डी, मीरगंज और चर्तुभुज मार्ग,

सुना है सुअर का यह बाल
सबसे पहले ब्रह्मा की आँखों में उगा था
जिससे पैदा हुई थी हमारी सरस्वती
जिसने नाश कर मारा हमारा पूरा आर्यावर्त
आदमी की जगह उगा दी जाति और
बना कर रख दिया इस जम्बू द्वीप को धरती का नर्क।