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मर्द-औरत / भरत प्रसाद

वह
किसी ठूँठ वृक्ष की
सख़्त गाँठ की तरह
अपनी कमर पर हाथ ऐसे रखती है
मानो कह रही हो
‘बोलो ! कभी हरा सकते हो मुझे?’

आदतन जीवन भर
मोह-ममता के वशीभूत रहकर भी
उसकी वीरान आँखों से
दुनिया के प्रति क्रोध
और सीधी-सादी कठोरता झरती है!

तीखी दरार की तरह
फटे, नंगे पैर
जीवन की उबड़-खाबड़ ज़मीन पर चलने के
इतना अभ्यस्त हो चुके हैं
कि उनमें थकान अब आती ही नहीं
उनके रुकने, सुस्ताने
या ठहर जाने का
कहीं प्रश्न ही नहीं उठता !

यदि आपके भी सीने में
है कहीं दिल
तो पैर की अँगुलियों से लेकर
पिचके हुए चेहरे तक
उभरी हुई हड्डियों को
ज़रा ध्यान से देखिए
सोचिए उसे
उसमें आपके लिए

रोज़-रोज़ के कठिन परिश्रम का ताप है --
डटकर खड़े रहने
और हर मुश्किल से जूझने का जज्ब़ा है
हारकर भी
कभी हार न मानने और
मैदान न छोड़ने की ज़िद है !

उसमें कोमलता
या माँसलता का नामोनिशान तक नहीं
अंग-अंग से
मर्दानगी को लजाती हुई मर्दानगी है !
विश्वास मानिए
उसका हृदय किसी अष्टधातु का बना है --
जिसमें नरमी है तो सख़्ती भी
आग है तो सरिता भी
असन्तोष है तो परमसन्तोष भी !

हमें नहीं पता
कि उसने किस मोड़ पर
और कितनी बार
ख़ून के आँसू रोए हैं-
किस-किस के
विष बुझे इरादों का
निशाना बनी है --
कितनी बार
घृणा, अपमान और मज़ाक का
कड़वा घूँट पीया है,
कैसे-कैसे
उसकी विनम्र आत्मा को
बलपूर्वक रौंदा गया है --
उसने कितनी बार
औरत होने का अभिशाप भोगा है ?

हमें यह भी नहीं पता
कि सचमुच हँसती है या नहीं ?
मन की कुछ कहती है या नहीं ?
अपने लिए कभी जीती है या नहीं ?
वह सवाल बनकर
सभ्यता की पीठ पर खड़ी है --

पूछ रही है कि
मैं तो औरत हूँ
हमें मर्द की तरह किसने बनाया?
किसने छीने?
मेरे भाव, मेरे रूप, मेरे रंग, मेरे हक़?

वैसे मुझे पता है --
अपने-अपने ढंग से
मेरा इस्तेमाल कर
सभी ने दिया
मुझे औरत होने का पुरस्कार !