भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मर गए उन पर तो जीना आ गया / राजेन्द्र स्वर्णकार

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:02, 14 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र स्वर्णकार |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> जामे - मय…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जामे - मय आँखों से पीना आ गया
मर गए उन पर तो जीना आ गया

हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया

गर्म मौसम की हवा जब झेल ली
तब से सावन का महीना आ गया

पाँव माँ के छू लिए हो सरनिगूं
हाथ में गोया दफ़ीना आ गया

नाम उसका जब तलातुम में लिया
मेरी जानिब हर सफ़ीना आ गया

मेरे इंसां की बुलंदी देख कर
कुछ पहाड़ों को पसीना आ गया

ज़हब -से अश्आर हैं राजेन्द्र के
लफ़्ज़-लफ़्ज़ में इक नगीना आ गया