भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मर जाती है बात / विजय वाते" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=विजय वाते
 
|रचनाकार=विजय वाते
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते
+
|संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते;ग़ज़ल / विजय वाते
 
}}
 
}}
  

08:43, 11 जून 2010 का अवतरण

या तो बहरे कान से टकरा के मर जाती है बात|
या हवाओ में कहीं लहरा के मर जाती है बात|

दिल से दिल का रास्ता सीधा भी है, आसां भी है,
अक्ल की दीवार से टकरा के मर जाती है बात|

बाद ज़ुबानी आज सब गुस्से में करतें है ज़रूर,
गालियों को होड़ से शर्मा के मर जाती है बात|

हर तरज ही शोर है, नारे हैं, जयजयकार हैं,
जानलेवा शोर से घबरा के मर जाती है बात|

बात लगाती है भली की सब जुबानें एक हों,
तर्ज़ुमों के फेर में चकरा के मर जाती है बात|