भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मर जाती है बात / विजय वाते

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:04, 19 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

या तो बहरे कान से टकरा के मर जाती है बात|
या हवाओ में कहीं लहरा के मर जाती है बात|

दिल से दिल का रास्ता सीधा भी है, आसां भी है,
अक्ल की दीवार से टकरा के मर जाती है बात|

बाद ज़ुबानी आज सब गुस्से में करतें है ज़रूर,
गालियों को होड़ से शर्मा के मर जाती है बात|

हर तरज ही शोर है, नारे हैं, जयजयकार हैं,
जानलेवा शोर से घबरा के मर जाती है बात|

बात लगाती है भली की सब जुबानें एक हों,
तर्ज़ुमों के फेर में चकरा के मर जाती है बात|