भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मस्ज़िद में वो मिला है न मंदिर ही में मिला / अजय अज्ञात

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:47, 29 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय अज्ञात |अनुवादक= |संग्रह=इज़...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मस्ज़िद में वो मिला है न मंदिर ही में मिला
उसका वज़ूद क़़ल्ब के भीतर ही में मिला

ये आस्था की बात है इसके सिवा न कुछ
इक बुतपरस्त को तो वो पत्थर ही में मिला

ढूंडा मगर न मिल सका अर्श ओ ज़मीन पर
इक आबदार मोती समंदर ही में मिला

क़़दमों में बैठ माँ के ज़ियारत भी हो गई
मक्कामदीना मुझको इसी घर ही में मिला

मालूम था कि ख़ारा है फिर भी न जाने क्यूँ
बह कर नदी का पानी तो सागर ही में मिला