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महंगा पड़ा मायके जाना / राकेश खंडेलवाल

तुमने कहा चार दिन, लेकिन छह हफ्ते का लिखा फसाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना !

कहां कढ़ाई, कलछी, चम्मच, देग, पतीला कहां कटोरी,
नमक, मिर्च, हल्दी, अजवायन, कहां छिपी है हींग निगोड़ी,
कांटे, छुरियां, प्लेटें, प्याले, सासपैन इक ढक्कन वाला,
कुछ भी हमको मिल न सका है, हर इक चीज छुपा कर छोड़ी

सारी कोशिश ऐसी, जैसे खल्लड़ से मूसल टकराना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना !

आटा, सूजी, मैदा, बेसन, नहीं मिले, ना दाल चने की
हमने सोचा बिन तुम्हारे, यहां चैन की खूब छनेगी,
मिल न सकी है लौंग, न काली मिर्च, छौंकने को ना जीरा
सोडा दिखता नहीं कहीं भी, जाने कैसे दाल गलेगी,

लगा हुआ हूं आज सुबह से, अब तक बना नहीं है खाना
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना !

आज सुबह जब उठकर आया, काफी, दूध, चाय सब गायब,
ये साम्राज्य तुम्हारा, इसको किचन कहूं या कहूं अजायब,
कैसे आन करूं चूल्हे को, कैसे माइक्रोवेव चलाऊँ,
तुम थी कल तक ताजदार, मैं बन कर रहा तुम्हारा नायब,

सारी कैबिनेट उल्टा दी, मिला नहीं चाय का छाना,
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना !

आलू, बैंगन, गोभी, लौकी, फली सेम की और ग्वार की,
सब हो गये अजनबी, टेबिल पर बस बोतल है अचार की,
कड़वा रहा करेला, सीजे नहीं कुंदरू, मूली, गाजर,
दाल मूंग की जिसे उबाला, आतुर है घी के बघार की,

नानी के संग आज बताऊं, याद आ रहे मुझको नाना,
सच कहता हूँ मीत, तुम्हारा महंगा पड़ा मायके जाना !