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महके बेले सी हर रात / सोनरूपा विशाल

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मन में शहदीला एहसास
तन में फागुन का उल्लास
धरती की ड्योढ़ी पर आई बासन्ती बारात।
दिन चहके कोयल से, महके बेले सी हर रात।
सरसों की चूनर,फूलों की बाली से श्रृंगार किया
धरती ने ऋतु की नक्काशी को दिल से स्वीकार किया
हर धड़कन, हर साँस-साँस, हर नब्ज़-नब्ज़ अब छंद हुई
ज्ञान-ध्यान वाली ऊबन भी इक गठरी में बंद हुई
वश में आने नामुमकिन हैं बेक़ाबू जज़्बात।
चंपा और चमेली, गेंदा, कचनारों की पंगत है
कण कण में नवजीवन है सोने-चाँदी सी रंगत है
बातें शरबत, नैना नटखट ,इच्छा पर्वत सी ऊँची
शाहकार रचने को आतुर चित्रकार की है कूची
प्यार भरे हर दिल को ये ऋतु लगती है सौगात।
गीली भोर,धूप सीली, हर शाम सिंदूरी जाम लगे
आज वर्जनाओं का सारा अध्यापन नाकाम लगे
धरती स्वर्गिक होकर अपना रूप चतुर्दिक बिखराये
कलियाँ रतिरूपा सी जिन पर ,भ्रमर मदन सा मंडलाये
बातों में होती है बस उत्सव वाली ही बात।