भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महक उठे गांव-गांव / किशन सरोज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महक उठे गांव-गांव
ले पुबांव से पछांव
बहक उठे आज द्वार, देहरी अँगनवा ।

बगियन के भाग जगे
झूम उठी अमराई
बौराए बिरवा फिर
डोल उठी पुरवाई
उतराए कूल-कूल
बन-बन मुरिला बोले, गेह में सुअनवा ।

घिर आए बदरा फिर
संग लगी बीजुरिया
कजराई रातें फिर
बाज उठी बांसुरिया
अन्धियरिया फैल-फैल
गहराये गैल-गैल
छिन- छिन पै काँप उठत, पौरि में दियनवा।

प्रान दहे सुधि पापिन
गली-गली है सूनी
पाहुना बिदेस गए
पीर और कर दूनी
लहराए हार-हार
मन हिरके बार-बार
जियरा में जेठ तपे, नैन में सवनवा ।