Last modified on 12 अगस्त 2013, at 12:45

महफ़िल-ए-मैखाना / शर्मिष्ठा पाण्डेय

आज मैखाने में हैरतंगेज काम हुए
होश में मैख्वार, साकी पे इलज़ाम हुए
 
यूँ तो कुछ भी न था शराब में सिवा तल्खी
उसने होठों से जो लगाया तो बदनाम हुए
 
मैकसी, दीन है ईमान-औ-धड़कन शपा की
मंदिरों, मस्जिदों में क़त्ल खुलेआम हुए
 
दर्द-आशोब, तन्हा-तन्हा क्यूँ फिरता है नशा
सब उनकी एक नज़र से, दीवाने-बाम हुए
 
नहीं आसां ज़ोमे-तवाफे-शोला है, ये शौक
जो जिगरवाले रहे वो ही बे-आराम हुए
 
के, मुदारात में माहिर, ये मैखाना अपना
दर्द प्यालों में उड़ेला तो वही जाम हुए
 
खुदा सा ज़र्फ़ रखे कांच को भी चुनता रहा
थे कुछ कमज़र्फ नगीने, वो ही नीलाम हुए
 
चमकती जिल्द के पीछे हैं चाक-दिल सबके
चारागरी, के माहिर ही सुबहो-शाम हुए