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महबूब सा अंदाज़-ए-बयाँ बे-अदबी है / शमीम तारिक़

महबूब सा अंदाज़-ए-बयाँ बे-अदबी है
मंसूर इसी जुर्म में गर्दन-ज़दनी है

ख़ुद अपने ही चेहरे का तअय्युन नहीं होता
हालाँकि मिरा काम ही आईना-गरी है

आने दो अभी जुब्बा ओ दस्तार पे पत्थर
कुछ काबा-नशीनों में अभी बू-लहबी है

ख़ाली ही रहा दीदा-ए-पुर-शौक़ का दामन
अँधों की अक़ीदत में बसी-उन-नज़री है

हर पाँव से उलझा हूँ कटी डोर के मानिंद
‘तारिक़’ मिरी क़िस्मत की पतंग जब से कटी है