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महरी / रंजना जायसवाल

भयंकर सर्दी है
छाया है कुहासा
अँधेरा है
पसरा है सन्नाटा चारों ओर
हो चुकी है सुबह जाने कब की
झल्ला रही है गृहिणी
नहीं आई अभी तक महरी
करना पड़ेगा उठकर
इस ठंडी में काम
मनबढ़ हो गए हैं ये छोटे लोग
चढ़ गया है बहुत दिमाग
जब से मिला है आरक्षण

सो रही होगी पियक्कड़ मर्द के साथ गरमाकर
तभी तो बियाती है हर साल
कालोनी के हर घर में
वही झल्लाहट है ..कोसना है
जहाँ-जहाँ करती है महरी काम


किसी के मन नहीं आ रहा
कि महरी भी है हाड़-मांस की इन्सान
उसके भी होंगे कुछ अरमान
मन भाया होगा देर तक रजाई में लेटना
सर्दी से मन जरा अलसाया होगा

हो सकता है आ गया हो उसे बुखार
या किसी बच्चे की हो तबियत खराब

गृहणियों को अपनी–अपनी पड़ी है
काम के डर से उनकी नानी मरी है

निश्चिन्त हूँ कि नहीं आती मेरे घर कोई महरी
घर की महरी खुद हूँ
हालाँकि इस वजह से पड़ोसिनों से
थोड़ी छोटी है मेरी नाक
सोचती हूँ कई बार