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महान नायक / बद्रीनारायण

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यह एक अजीब सुबह थी

जो लिखना चाहूँ, लिख नहीं पा रहा था

जो सोचना चाहूँ, सोच नहीं पा रहा था

सूझ नहीं रहे थे मुझे शब्द

कामा, हलन्त सब गै़रहाज़िर थे ।


मैंने खोल दिए स्मृतियों के सारे द्वार

अपने भीतर के सारे नयन खोल दिए

दस द्वार, चौदह भुवन, चौरासी लोक

घूम आया

धरती गगन मिलाया


फिर भी एक भी शब्द मुझे नहीं दिखा

क्या ख़ता हो गई थी, कुछ समझ में नहीं आ रहा था


धीरे-धीरे जब मैं इस शाक से उबरा

और रुक कर सोचने लगा

तो समझ में आया


कि यह शब्दों का एक महान विद्रोह था

मेरे खिलाफ़


एक महान गोलबन्दी

एक चेतष प्रतिकार


कारण यह था कि

मैं जब भी शब्दों को जोड़ता था

वाक्य बनाता था

मैं उनका अपने लिए ही उपयोग करता था


अपने बारे में लिखता रहता था

अपना करता रहता था गुणगान


अपना सुख गाता था

अपना दुख गाता था


अपने को ही करता था गौरवान्वित

अजब आत्मकेन्द्रित, आत्मरति में लिप्त था मैं


शब्द जानते थे कि यह वृत्ति

या तो मुझे तानाशाह बनाएगी

या कर देगी पागल बेकार

और शब्द मेरी ये दोनों ही गति नहीं चाहते थे


शब्द वैसे ही महसूस कर रहे थे कि

मेरे भीतर न प्रतिरोध रह गया है


न प्यार

न पागल प्रेरणाएँ


अत: शब्दों ने एक महान नायक के नेतृत्व में

मेरे खिलाफ़ विद्रोह कर दिया था ।