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महारास / दिनेश कुशवाह

            
प्रेम करना मैंने
अपने पुरखों से सीखा
यह कबीर से लेकर निराला
ग़ालिब से लेकर फ़ैज़
और उनके बाद के पुरखों की
एक लम्बी यात्रा थी ।

शुरुआत मैंने
केदारनाथ अग्रवाल की कविता से की
प्रिया से कहा — 'वंशी मत बजाओ
मेरा मन डोल रहा है ।'

वह मोहिनी लेकर
डोलने लगी मेरे आस-पास
कहा — चलो !
सबकुछ छोड़कर नाचो मेरे साथ
मैं नाचने लगा
और नाच के सिवा सब कुछ भूल गया ।

एक दिन मुझे उदास देखकर
उसने कहा — प्रिय, मेरे लिए
एकान्त मत खोजो
सबके सामने प्रेमनृत्य ही महारास है ।

मैंने उसे धन्यवाद दिया
त्रिलोचन की कविता से
कहा — 'यूँ ही कुछ मुसकाकर तुमने
परिचय की यह गाँठ लगा दी ।'

इतना ही क्या कम है
तुम्हारा ऋणी होने के लिए
भय-घृणा-हिंसा और बलात्कार भरे इस समय में
तुम्हारा होना ही अहोभाग्य है ।

मैंने परिहास किया —
वैसे भी आज की हिन्दी कविता
एकान्त के अनुभव के मामले में बहुत दरिद्र है
लगता नहीं कि हम कालिदास के वंशज हैं ।

उसने कहा — मैंने कुछ समझा नहीं
मैंने कहा — इसमें समझ में न आने वाली
कौन-सी बात है ?
उसने कहा — तुम नहीं समझोगे !
मैं जा रही हूँ

मैंने प्रेम को विदा किया
केदारनाथ सिंह की कविता से
कहा — जाओ
यह जानते हुए कि 'जाना'
'हिन्दी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है।'