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महावीर प्रसाद 'मधुप' / परिचय

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निम्नलिखित परिचय मधुप जी के पुत्र श्री सुधाकर जी ने लिखा है और माटी अपने देश की नामक संग्रह में प्रकाशित है।


‘‘न हो बरसात ही जिसमें, वो सावन का महीना क्या?
रहे परतंत्र होकर तो सुधा की घूँट पीना क्या?
असंख्यों ही जनमते और मरते हैं यहाँ यूँ तो,
न जिसको जान पाए जग, वो मरना और जीना क्या?

इस नश्वर जगत् में मानव एक यायावर की भाँति आता है और अपनी यात्रा पूर्ण विस्मृतियों के बियाबान में विलुप्त हो जाता है। लेकिन कुछ युगपुरूष ऐसे होते हैं, जो अपने विशिष्ट गुणों के कारण जनमानस में अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं और लम्बे समय तक याद किए जाते हैं। ऐसे ही एक महापुरूष थे श्री महावीर प्रसाद ‘मधुप’।

आपका जन्म हरियाणा प्रदेश के एक विख्यात नगर भिवानी में 23 जून सन् 1928 को श्री पालूराम के घर हुआ। पिता का गोटा-किनारी का साधारण-सा व्यापार था। बचपन के कुछ वर्ष लाड़-प्यार में बीत गए और इसके बाद आप शिक्षा के लिए विद्यालय जाने लगे। मात्र पाँच-छह वर्ष की आयु में ही आप अपने पिता के साथ बैठकर रामचरितमानस का पाठ करने लगे थे। पिता की अस्वस्थता के कारण कक्षा 6-7 के बाद विद्यालय जाना छूट गया लेकिन पढ़ने की इच्छा और लगन बराबर मन में बनी रही। एक अध्यापक थे, श्री मातूराम शर्मा; जिनकी चर्चा प्रायः आप अपनी बातों में किया करते, इनसे आपने हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और महाजनी बड़ी लगन और परिश्रम से सीखी।

सांस्कृतिक कार्यों में आपकी रूचि आरंभ से ही थी। आपकी कुल चौदह-पंद्रह वर्ष की रही होगी, भिवानी में लिबर्टी सिनेमा हॉल में कुछ धार्मिक नाटक खेले गए, जिनमें आपने कृष्ण की महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेते-लेते कविता में रूचि पैदा हुई। मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में आपने अपनी पहली रचना लिखी, एक समस्या-पूर्ति के रूप में। समस्य थी- ‘फिरे नहीं फेरे’। इसे आपने इस तरह निभाया-

‘‘ईश हियों मम धाम तेरो तँह, आन बसे हैं अनेक लुटेरे।
तीक्षण तान कमान रहे खल, सेन समेत खड़े मोहे घेरे।।
डाट दिखावत हैं सब ही अरू घात चलावत नैन तरेरे।
आय तुरंत सहाय करो प्रभु, ठाढे हैं दुष्ट फिर नहीं फेरे।।’’

प्रारंभ में हरियाणवी भाषा के प्रसिद्ध कवि श्री बद्री सिंह ‘विशाल’ को आपने गुरू माना और यह रचना उन्हीं को समर्पित की। बाद में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्री सनेही जी के साथी श्री लक्ष्मीनारायण शर्मा ‘कृपाण’,जो सीतापुर कॉलेज में प्राध्यापक थे, को गुरू बनाया। श्री कृपाण जी छंद रचना में एक विशिष्ट स्थान रखते थे। गुरू के लेखन व शैली का प्रभाव शिष्य के लेखन व रचनाओं पर भी ख़ूब पड़ा ओर अंत तक रहा। तभी आपको उपनाम मिला ‘मधुप’ और महावीर प्रसाद ‘मधुप’ हो गए।

पंद्रह वर्ष की अल्पायु में ही पिता का निधन हो गया। उसके एक वर्ष पश्चात् ही विवाह के बंधन में बांध दिए गए। जीवनसाथी के रूप में मिली श्रीमति शर्बती देवी। दया, ममता, त्याग ओर सहनशीलता की साक्षात् प्रतिमूर्ति! जिनके साथ जीवन की दुर्गम राहें भी सहजता से पार हो गईं।

छोटी सी आयु में ही परिवार के भरण-पोषण का भार, व्यापार की देखभाल का दायित्व, साधनों का नितांत अभाव और सर्वथा प्रतिकूल परिस्थितियाँ; ऐसे विपरीत वातावरण में माँ सरस्वती की आराधना व काव्य-रचना बुित ही दुष्कर कार्य था, लेकिन सच्ची लगन, कड़ी मेहनत व दृढ़ इच्छा-शक्ति के रहते कोई बाधा आपका रास्ता नहीं रोक सकी। रात-रात भर जाग कर आप लालटेन के मद्धम प्रकाश में भी साहित्य-सेवा में तल्लीन रहते। आपने अपने छंद में लिखा है-

‘‘नीरव निशा में जब सोता सुख नींद जग,
बैठा कवि सारी रात काली कर देता है।
सिंचित स्वरक्त से बनाता कल्पना का कुंज,
शुष्क मरू में भी हरियाली कर देता है।।
लेता किसी से न कुछ, देता दूसरों को सदा,
मुक्तक लुटाता कोष खाली कर देता है।
अमित दुखों को दुलराता गीत गाता हुआ,
सृष्टि का सरस मतवाली कर देता।।’’

कई बार ये सोच कर और देख कर एक सुखद आश्चर्य की अनुभुति होती है कि कम शिक्षित होने पर भी कैसे आपने साहित्यकारों, कवि समाज और विद्वानों के मध्य अपना सम्मानजनक स्थान बनाया। ये या तो कोई पूर्वजन्म के संस्कार हैं या ईश्वर का दिया वरदान। इस पर आपने स्वयं लिखा है-

‘‘है न बुद्धि, बुद्धिमानों की मगर ममता मया है,
है न विद्या स्नेह विद्वद्वर्ग का पूरणतया है।
हूँ निबल निर्धन; धनी, बलवान झुकते सामने आ,
हूँ स्वयं हैरान, ये सब उस दयामय की दया है।।’’

आप सनातन कुल में जन्म लेने पर भी सभी धर्मों को पूरा सम्मान देते थे और सभी धर्मानुयायियों से आपके मधुर संबंध थे। स्वभाव से एकदम विनम्र व संतोषी, न धन की लालसा और न ही प्रसिद्धि पाने की इच्छा साहित्य साधना व काव्य रचना करते थे केवल स्वान्तः सुखाय!

संगीत का प्रभाव इन्सान के जीवन पर बहुत अधिक पड़ता है, बचपन से ही आपको साथ मिला श्री बंशीधर शर्मा ‘सरोज’ जैसे लौहपुरूष का, जो आपके गुरूभाई भी हैं वे कविमित्र भी। आपके जीवन काल में आपके कई शिष्य हुए, लेकिन इनमें सबसे अधिक योग्य व प्रिय जिनको आप मानते थे, वे हैं डॉ. सारस्वत मोहन ‘मनीषी’, जो आजकल रामलाल आनंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं।

सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रूचि के चलते आपने अनेक वर्षों तक रामलीला मंचन में अपना विशिष्ट योगदान दिया। भिवानी नगर में अनेक बार कवि-सम्मेलनों का आयोजन करवाया तथा संयोजन भी किया। कवि-सम्मेलनों में भारतवर्ष के अनेक प्रतिष्ठित कवि सम्मिलित हुए, जो आपकी काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत व प्रभावित हुए।

काव्य के प्रति आपको ऐसा अनुराग था कि जीवन के अंतिम समय तक रूग्णता की अवस्था में भी आप कविता पढ़ने-सुनने में ही समय व्यतीत करते थे। और अंत में 19 अक्टूबर 2002 को आप इस नश्वर जगत् को छोड़ कर प्रभु के चरणों में लीन हो गए।

क्षणभंगुर जीवन है, न सदा रहती है बहारे-जवानी यहाँ,
यह रूप की चांदनी दो दिन है, हर चीज़ है नश्वर-फ़ानी यहाँ।
जनमे जितने भी गए जग से, बच पाया न एक भी प्राणी यहाँ,
कहने के लिए कुछ रोज़ को ही रह जाती किसी की कहानी यहाँ।

पिता श्री की इन पंक्तियों के साथ ही उनको कोटि-कोटि नमन करते हुए मैं अपनी क़लम को विराम देता हूँ!

-विनीत पुत्र
सुधाकर